Thursday, April 2, 2020


*आज की कहानी
जब से देश में लॉकडाउन हुआ है और जबलपुर में कर्फ़्यू लगा हैतब से मेरा बाहर निकलना घर सेऑफ़िस और ऑफ़िस से घर तक ही सीमित था...चूँकि ऑफ़िस में काफ़ी लोग आते हैं औरएक्सपोज़र का ख़तरा होता है तो मैं घर में भी किसी को बुलाता नहीं हूँ और किसी के  यहाँ जाता भीनहीं हूँ...ऐसे में आज मुझे लगा कि शहर का भ्रमण करना चाहिए... इसी बीच हर्रई फार्म जाने काख़्याल भी दिमाग़ पर हावी हो गया...
मैं करीब १२ बजे घर से निकला और मेडिकल कॉलेज तक मुझे कुछ दुपहिए और चार पहिए वाहनमिले... पर एम्बुलेंस - मिल गईंदुकानें बिल्कुल बंद थीं... पर सड़कों पर होली की नहीं बल्किदिवाली की परिवा जैसा सन्नाटा थापुलिस के  पोईँट लगे थे पर कोई चेकिंग नहीं थीसब स्वस्फूर्तचल रहा थादवा की दुकानों के आगे खासी भीड़ थीमॉडल रोड वाले दवा मार्केट में तो रिटेलर्स कामेला लगा था...अस्पताल और क्लिनिक्स के सामने भी मरीज़ और  वाहन दिख रहे थे...तिलवाराघाटतक ऐसा ही नजारा था पर जैसे ही मैं हाइवे पर आयासूनापन स्पष्ट नज़र आया
बरगी रोड पर निगरी तक इक्का-दुक्का ट्रक दिखेपेट्रोल पम्प खुले और अधिकांश ढाबे बंद थेएकाध कार दिखीजिसमें से उत्साहित नौजवान ट्रक ड्राइवर्स को रोककर भोजन के पैकेट दे रहे थेबिना ये ख़्याल किए हुए कि ट्रक के केबिन में कोई कोरोना पीड़ित हो सकता है....बहरहालजैसे हीमैं निगरी से दाएँ हर्रई के  लिए मुड़ा...बीच के दोनों गावों  में सन्नाटा छाया हुआ था.. लौटते वक्तज़रूर एकाध बच्चे और युवा दिखे.... पर गाँव कोरोना के क़हर में पूरी तरह अनुशासन में औरअलसाए हुए थे...हाइवे के  गाँव निगरी में सारी दुकानें बंद थीं... भीतरी सड़क पर हर्रई से पहले केगाँव में भी पूरी तरह सन्नाटा था...हर्रई में भी पूरी तरह शांति थी... 
कहने का आशय यह है कि जबलपुर शहर में कर्फ़्यू के बीच भी लोग बाहर निकलने के लिए मचल रहेहैं... कर्फ़्यू पास के लिए सोर्स लगवा रहे हैं... पर इसी शहर के पास के गाँवों में रहने वाले ग्रामीणों नेसरकार और विशेषज्ञों की बात सबसे ज़्यादा मानी है... इसीलिए तो कहते हैं कि भारत की आत्मागाँवों में बसती है...

Monday, February 23, 2009

महाकाल के ऐसे दर्शन

लगभग तीन साल पहले की बात है, मैं किसी काम से इंदौर गया था। काम जल्दी हो गया तो मैंने अपने इंदौर के दोस्तों को फोन लगाया, वर्किंग डे और दोपहर का समय, दोस्तों ने कुछ व्यस्तता जाहिर कि और शाम को मिलने की बात कही। मैंने उज्जैन में अपने एक मित्र, जो कि मध्यप्रदेश टूरिस्म के होटल में महाप्रबंधक थे, को फोन मिलाया तो उन्होंने तपाक से कहा- उज्जैन आ जाओ, महाकाल के दर्शन कर जाओ। ऑफ़र बड़ा ही अच्छा था, ड्राईवर से कहा कि उज्जैन का रास्ता पता करो। थोड़ी ही देर में हम उज्जैन के रस्ते पर थे। करीब डेढ़ घंटे बाद जब उज्जैन पहुंचे तो शाम ढलने में काफी समय था. एस एस भार्गव, जो कि महाप्रबंधक थे, इंतजार करते मिले। उन्होंने कहा कि तैयार हो जाइये, फिर राजू के साथ दर्शन करने चले जाइये। मैंने पूछा- राजू कौन है? तो जवाब मिला- गाइड है।
थोड़ी देर बाद हम दोनों निकले, तो राजू ने कहा कि पहले संदीपनी आश्रम चलते हैं। मैं कुछ कह पता उससे से पहले ही राजू ने कहा- महाकाल के दर्शन सबसे आख़िर में करेंगे और तभी इसका कारण बताएँगे। राजू ने क्रम से उज्जैन के सभी मंदिरों और महत्वपूर्ण स्थलों के दर्शन कराये। फिर जब महाकाल के मन्दिर पहुंचे तो उसने कहा- महाकाल उज्जैन के राजा हैं, वो नहीं चाहते कि कोई भी भक्त उनके सीधे दर्शन को आ जाए। वो चाहते हैं कि भक्त पहले प्रहरी से मिले, फिर सेनापति, कुलदेवी और इसी क्रम में उन सबसे मिलने जाए, जिनकी अवज्ञा नहीं की जानी चाहिए, और अंत में राजा से मिलने आए, तभी इस दर्शन का पूरा पुण्य मिलता है। हाँ, बाद में राजू हमें अष्टग्रही मन्दिर ले गए, जो शहर से बाहर की ओर स्थित है। लेकिन एक बात जरूर थी इस नए तरीके से दर्शन करने में आनंद बहुत आया और जब यह पता चला कि राजू लेखक हैं और उनकी कई पुस्तकें प्रकाशित हों चुकीं हैं, तो उज्जैन में एक दोस्त और बढ़ गया।

Wednesday, February 18, 2009

सीख से परे

दोस्तों को सचेत करना टेढी खीर है। मैंने पाया है कि जब भी कोई दोस्त सलाह मांगते हैं करते सलाह का उल्टा हैं। हालाँकि पहले-पहले मुझे बुरा लगता था। फ़िर मैंने यह भी पाया कि सलाह लेने वाला दोस्त भले ही उल्टा करता है पर वह काफी सचेत रहता है कि वो बात न होने पाए जिसके प्रति मैंने आगाह किया है। लेकिन कई बार वैसा ही हुआ जिसकी मैंने आशंका व्यक्त की थी, तब सम्बंधित दोस्त कई दिनों तक आँखे चुराते रहते थे, जो हिम्मती होते थे वो स्वीकार करते थे कि तुम्हारी सलाह न मानने से नुकसान हुआ पर अगली बार भी सलाह का उल्टा ही करते थे। इससे मैंने निष्कर्ष निकला है कि अधिकांश दोस्त सीख से परे होते हैं। हाँ, अगर आज भी वो सलाह मांगते हैं तो मैं देने में पीछे नहीं हटता, जब भी सीख देने कि जरुरत पड़ती है, निष्पक्ष बात ही कहता हूँ, कोई माने या न माने.

Saturday, February 7, 2009

ऐसी भूल

पब्लिक लाइफ में दो दशक बिताने के बाद मैं हमेशा यही मानता हूँ कि किसी भी व्यक्ति को समझना बहुत कठिन नहीं होता, लेकिन एक ऐसा कटु अनुभव दिल में छिपा है जो पहचानने में हुई भूल की पराकाष्ठा है।
पॉँच-छः साल पुरानी बात है, हमेशा की तरह मध्य रात्रि के बाद काम निपटा कर घर जाने के लिए ऑफिस से बाहर निकला तो बाजू में स्थित एक अपार्टमेन्ट के नीचे दीवाल से सटकर कोई खड़ा दिखा। रात में सतर्क रहने की आदत है इसी कारण उसका हिलता हुआ हाथ आसानी से दिख गया। कार रोकी तो वहां एक लड़की नजर आई जो तत्काल ही बाहर आ गई। उसने रेलवे स्टेशन तक छोड़ देने का आग्रह किया। दिमाग ने कहा ऑफिस से किसी को बुला लो। इतने में कार रुकी देख दो-तीन जूनियर आ ही गए। सभी ने एक मत निर्णय लिया कि लड़की को पुलिस को सौंप देना चाहिए।
समीप ही सिविल लाइंस थाना था जहाँ फ़ोन कर् दिया तो पुलिस भी आ गई। हालाँकि लड़की बार- बार कहती रही कि उसे पुलिस के पास मत भेजो... गड़बड़ हो जायेगी लेकिन तबतक पुलिस आ ही गई थी। पुलिस ने लड़की से पूछा कि वह कहाँ की रहने वाली है? लड़की ने बड़ी मुश्किल से बताया कि पास के शहर दमोह से किसी के साथ आई थी, समय का पता नहीं चला, लाने वाला चला गया अब वह अकेली है, स्टेशन पर छोड़ दो सुबह होते ही चली जायेगी। पर पुलिस ने तय किया कि उसे महिला पुलिस स्टेशन में छोड़ देते हैं। और यही किया। अगले दिन उस लड़की की मासूमियत पर यह स्टोरी छापी कि उसकी माँ और सौतेले पिता ने उसे घर से निकाल दिया है। गोरी-चिट्टी सुंदर सी इस लड़की को गोद लेने के लिए एक संभ्रांत परिवार तैयार हो गया।
दो-चार दिनों तक लड़की की ख़बर ली तो पता चला कि बच्चों ने उसे बड़ी दीदी मान लिया है। सब कुछ बढ़िया चल रहा है, सब खुश भी हैं। करीब एक पखवाडे बाद जब फ़िर से उस लड़की कि याद आई तो उस परिवार को फोन किया और जो सुना उससे पैरों के नीचे की जमीन किसक गई।
उस परिवार ने घर पर बुलाकर पूरी कहानी सुनाई। वह लड़की पक्की कॉलगर्ल थी। उसने घर के फोन से ही अपने ग्राहकों को फोन करना शुरू कर् दिया था। गोद लेने वाले मियां बीवी काम पर चले जाते थे और पीछे से लड़की गड़बड़ करती थी। जब शक हुआ तो उसका मेडिकल परीक्षण कराया गया, जिसमे पुष्टि भी हो गई। वह संभ्रांत परिवार मरता क्या न करता, पुलिस के सहयोग से किसी तरह उससे छुट्टी पायी और भविष्य में ऐसी सहायता न करने कि कसम भी खाई। इस स्टोरी ने यह तो आपको स्पष्ट कर् दिया होगा कि भूल किसी से भी हो सकती है किसी को पहचानने में।

Tuesday, January 27, 2009

बहुत दिनों के बाद

ब्लॉग पर लिखना काफी आसान है लेकिन लिख पाना बहुत कठिन, यह अनुभव तब हुआ जब व्यस्तता के कारण काफी दिनों तक कुछ लिख नहीं पाया। इस बीच मेरा ब्लॉग नियमित तौर पर पढ़ने वाले मेरे दोस्तों ने मुझसे सवाल भी किया कि क्या बात है कुछ लिख नहीं रहे हो? मैंने व्यस्तता कि बात कह दी। फ़िर मैंने सोचा कि ब्लॉग पर लिखना बंद नहीं करना चाहिए, चाहे कितनी भी व्यस्तता हो, लेकिन लिख नहीं पाया। आज एक साथ कई दोस्तों ने टोक दिया तब मैंने ब्लॉग खोला और लिख्नना शुरू किया, कई बार विघ्न आए पर लिखना जारी रखा, अंततः लिख डाला। बहुत दिनों से मैं कुछ कहना चाह रहा था, शायद आज सही वक्त आ गया है। भले ही ब्लॉग कोई पढ़े या न पढ़े लेकिन ब्लॉग लिखने से स्वान्तः सुखाय का सुख तो मिलता ही है। इसलिए मेरा सभी दोस्तों से आग्रह है कि ब्लोगिंग शुरू कर दे अभी से ही.

Tuesday, December 9, 2008

ओशो की गोद में


यह बात या तो 1969 की होगी या फ़िर 1973 की, क्योंकि ओशो इन्हीं दो वर्षों में जब जबलपुर आए होंगे तब मैं इतना छोटा रहा हूँगा की मुझे इस अदभुत घटना कि याद नहीं है। मेरे पापा और मम्मी ओशो के प्रवचन सुनने पोलिटेक्निक कॉलेज पहुंचे, तब ओशो भगवान रजनीश के नाम से पहचाने जाते थे। दोनों ये बताते हैं कि प्रवचनों के दौरान मैं खेल रहा था। मेरी आवाज से कुछ डिस्टर्ब हो रहा था तो हर कोई मेरी और देखने लग गया। भगवान रजनीश, जो कि सामने बैठकर प्रवचन दे रहे थे, भी मेरी हरकतों को देख रहे थे। इससे पहले कि आयोजक कुछ कह पाते ओशो ने अचानक से मुझे अपनी और खींचा और गोद में बिठा लिया। कुछ क्षणों के लिए दुलारा और फ़िर नीचे छोड़ दिया। मम्मी और पापा का कहना है कि उसके बाद प्रवचन काफी देर तक चलते रहे पर मैं फ़िर शांत ही बैठा रहा। इसके बाद भी जब कभी मुझे ऐसे किसी कार्यक्रम में ले जाया गया तो मैंने कभी परेशान नहीं किया।

Monday, December 8, 2008

कोई जीता कोई हारा

आख़िर चुनाव के परिणाम आ ही गए। कोई जीत गया तो कोई हार गया। चुनाव में ऐसा होता ही है। लेकिन जबलपुर के परिणामों में कुछ विशेषता है। यहाँ जो भी हुआ प्रदेश से हटकर हुआ, भाजपा ने 7 तो कांग्रेस ने मात्र 1 सीट जीती।

बस अड्डे पर मिला-जुला माहौल

रात को बस अड्डे पर मिलने वाले पत्रकार आज दिन में ही मिल लिए। कुछ खुशी थी तो कुछ गम भी था। बस अड्डे के साथियों में लखन भाई और शरद जी जीत गए, संजू भाई भी जीते और इनकी जीत की खुशी तो सभी को थी पर तरुण की हार का गम भी था। अब शरद और कदीर में तो एक को ही जीतना था, इस कारण शरदजी की जीत को सभी ने सहर्ष स्वीकार कर लिया पर तरुण की हार से सभी दुखी हैं.

Thursday, December 4, 2008

दोस्तों, सतर्क हो जाओ

मेरा यह ब्लॉग दोस्तों को समर्पित है, इसी उद्देश्य से इसकी रचना की गई थी, यह बात और है कि इस पर दोस्तों के उतने कमेन्ट नहीं मिले जितने कि अपेक्षा की गई थी। फिर भी जो दोस्त इसे पढ़ते हैं उनसे आग्रह है कि अपने कमेन्ट भी दिया करें।
मेरे कई दोस्त ऐसे हैं जिनका शौक खतरों से खेलना है। कुछ ऐसे है जो न चाहते हुए भी खतरों से खेल रहें है क्योंकि उनकी मजबूरी है। दोनों ही तरह के दोस्तों से मेरा आग्रह है कि सतर्क हो जायें क्योंकि आजकल खतरा कुछ ज्यादा बढ़ गया है। एक ओर आतंकियों कि नजर इस देश को लग गई है तो दूसरी ओर गद्दार सक्रिय है। इन सबके साथ उस क्वालिटी के दोस्त भी सक्रिय है जिनके रहते दुश्मनों की जरुरत नहीं पड़ती, फ़िर ठण्ड तो है ही।


Tuesday, December 2, 2008

आक्रोश से डर क्यों रहे

सच को स्वीकारना हर किसी के बस की बात नहीं है खासकर उन नेताओं की, जो झूठ बोलकर वोट लेने के आदी हो चुकें हैं। मुंबई हादसे के बाद जब जनता ने सड़कों पर अपना आक्रोश दिखाया तो यही नेता आज भूमिगत होने की कगार पर पहुँच गये। दरअसल ये नेता सच को स्वीकारना नहीं चाहते हैं। वे ये मानना नहीं चाहते कि देश की आज जो स्थिति है, उसके लिए वे स्वयं जिम्मेदार है। आतंकियों को जो करना था वे कर के चले गए, भविष्य में भी यदि वो चाहेंगे तो कोई नया गुल खिला जायेंगे। इसका सीधा अर्थ यह है कि जब तक तुष्टिकरण कि नीति चलती रहेगी, आतंकवाद पर काबू पाना सम्भव नहीं रहेगा। इस बार के हादसे में यह बात जरूर उल्लेखनीय रही है कि आतंकियों ने अपने किसी साथी को छुड़ाने कि मांग नहीं रखी अन्यथा इन्हीं नेताओं कि हालत देखते बनती! इनका कोई सगा सम्बन्धी यदि बंधक बना लिया गया होता तो ये उसे छुड़ाने के लिए हर सम्भव प्रयास करते चाहे उसके लिए किसी दुर्दांत आतंकी को छोड़ना ही क्यों न पड़ जाता। नेताओं को सच स्वीकार कर लेना चाहिए कि उनकी दोगली नीतिओं ने देश का बंटाधार कर दिया है। साथ ही पश्चाताप करते हुए ये वादा करना चाहिए कि वोटों की खातिर देश की सुरक्षा से समझौता नहीं करेंगे।

Thursday, November 27, 2008

शर्मनाक हरकत

देश की व्यावसायिक राजधानी पर आतंकियों का हमला शर्मनाक है और यह समझ से परे है कि वो करना क्या चाहते हैं? उनका उद्देश्य क्या है? अगर वे अल्लाह के नाम पर ये सब करना जायज मानते हैं तो भी उनको यह तो बताना ही चाहिए कि आख़िर वे सब क्यों करना चाहते हैं और कब तक करते रहेंगे? ये तो गनीमत है कि भारत में राजनीतक कारणों से यह सब चलने दिया जा रहा है पर आज नहीं तो कल सरकार भी ऐसी शर्मनाक घटनाओं से त्रस्त हो जायेगी और वोट कीराजनीति के आगे उसे ये घटनाएँ असहनीय नजर आएँगी तब उसी दिन से शुरू हो जाएगा आतंकियों के सफाए का ऐसा क्रम जो उन्हें नेस्तनाबूद करने के बाद ही थमेगा।

Friday, November 14, 2008

पहला पाठ

दिन तो मुझे याद नहीं पर ये वाकया है संभवतः जुलाई 1990 का, मैं और मेरा एक दोस्त पत्रकारिता में प्रवेश लेने के लिए यूनिवर्सिटी पहुंचे। कुछ कारणों से यूनिवर्सिटी में हमें सभी जानते थे इस कारण जोर से पूछा- 'यहाँ कौन है,' चपरासी जो हम लोगों को जानता था तत्काल बाहर आया और पूरा सम्मान देते हुए उसने काम पूछा। हम लोगों ने उससे कहा कि प्रवेश चाहिए, इससे पहले कि वह कुछ कहता अंदर से किसी महिला कि आवाज आई- 'कौन है?' जवाब चपरासी ने दिया- 'भैया लोग हैं, प्रवेश लेना चाहते हैं।' अंदर से पुनः आवाज आई- 'पहले हमारे पास भेजो।' न चाहते हुए भी अंदर गए वहां विभागाध्यक्ष बैठी हुईं थीं, उन्होंने हम दोनों का पूरा इंटरव्यू लिया और फ़िर कहा- 'पहले प्रवेश परीक्षा दो, फ़िर प्रवेश मिलेगा वह भी तब जब मेरिट लिस्ट में नाम आएगा।' हम दोनों ने प्रवेश परीक्षा दी और सेलेक्ट भी हो गए। खुशी हुई कि कड़ी प्रतिस्पर्धा में चुना गया। वैसे विभाग के बारे में यह विख्यात था कि यहाँ प्रवेश उसी को मिलता है जिसे मैडम चाहती हैं। अब प्रश्न यह उठता है कि मैडम ने हम दोनों को प्रवेश दिया क्यों? सत्र के बीच में एक दिन खुलासा हुआ, मैडम ने क्लास में सभी को बताया कि मनीष जब प्रवेश के लिए आया था तो हाफ पैंट पहना था। उसके पैर में चोट लगी थी और उसे बारिश में भीगने से बचाने के लिये उसने पोलीथिन लपेट रखी थी, वो प्रवेश परीक्षा के बाद भी जब जब लिस्ट देखने आया तो वैसी ही स्थिति में आया, उसकी लगन देखकर मैंने तय कर लिया था उसे तो प्रवेश देना ही है। जब मेरिट लिस्ट बन रही थी तो पाया कि मनीष के नम्बर तो अच्छे हैं लेकिन उसके दोस्त के नम्बर कम थे पर दोनों का साथ देखकर दोनों को ही प्रवेश दे दिया। मैं जिंदगी मे इस पहले पाठ को कभी नहीं भूल पाउँगा कि किसी भी काम के लिये पहली शर्त लगन का होना है.



Wednesday, November 12, 2008

नई राह, नई चाह

युवा मन में तरक्की की चाह होना स्वाभाविक है और होना भी चाहिए, लेकिन इसके साथ मौकापरस्त होने का टैग नहीं लगना चाहिए। अगर यह टैग लग जाए तो कैरियर को ख़त्म होने में कुछ ही साल लगते हैं। किसी भी व्यक्ति के लिए नई राह खोजने के लिए चाह हमेशा बनी रहनी चाहिए। यही चाह उसे शीर्ष पर पहुँचने में मदद करती है बशर्ते ईमानदारी का गुण कायम रहे, हालाँकि यह काम काफी कठिन होता है और दोस्त तथा परिजन कभी-कभी gussa हो jate हैं पर यह narajagi कुछ समय की होती है, इसका सम्मान करते हुए काम में आगे badate जाना चाहिए.

Friday, November 7, 2008

दिल्ली वालों को भी फिक्र है

जबलपुर में चुनाव कौन लड़ रहा है और किसकी क्या स्थिति है, इसकी फिक्र दिल्ली तक है। तरुण भानोत के लिए तो दिल्ली से दो दोस्तों के फोन इस ब्लॉग को पढ़ने के बाद आए। आशा है कि दोस्तों के कमेन्ट भी आएंगे।

Wednesday, November 5, 2008

बस अड्डे की खुशी

जबलपुर के बस अड्डे पर जुटने वाले पत्रकारों की खुशी समाये नहीं समां रही है क्योंकि उनके पांच दोस्तों को विधानसभा चुनाव का टिकट मिल गया है। सबसे खुश हैं छोटू भाई क्योंकि वे पहले से पॉलिटिकल आदमी हैं और चाहे लखन भाई हो या शरद भाई, दोनों उनके पॉलिटिकल साथी है। कदीर भाईजान भी उनके पुराने साथी हैं और रही संजू भाई की बात तो चूँकि वह आशीष भाई के कजिन हैं इस कारण सभी का हौसला और बुलंद है। हाँ, यह बात सभी को खल रही की एक ही सीट - मध्य से दो दोस्त - कदीर और शरद आमने सामने हैं, लेकिन यह तो चुनाव है दोनों में से जो भी जीतेगा वो होगा तो बस स्टैंड का दोस्त। अब तरुण को भी टिकट मिल गया है और नामांकन रैली से ही जोश दिखने लगा है, सभी को दोस्तों की जीत का इन्तजार है.

Saturday, November 1, 2008

ये वो विवेक तो नहीं

कहते हैं कि जो व्यक्ति पुराने मित्रों को भूल जाता है उसकी सुकीर्ति स्थाई नहीं रहती, भगवान ऐसा मेरे दोस्त विवेक के साथ नहीं होने देना। आज वह फ़िल्म इंडस्ट्री में नाम कमा रहा है, व्यस्तता में पुराने दोस्तों को याद नहीं कर पा रहा है, हो सकता है उसके आसपास जो लोग हैं वो उसे पुराने दोस्तों से दूर रख रहे हों, आज नहीं तो कल वो हम लोगों को याद जरूर करेगा, तब तक दिल को मनाने के लिए यह कहना बेहतर होगा- ये वो विवेक तो नहीं है.

Tuesday, October 28, 2008

निशाचर दोस्तों को सलाम

सभी दोस्तों को दीवाली की शुभकामनाए, खास कर उन दोस्तों को जो अपनी रातें दूसरों की रातें रोशन करने के लिए काली कर रहे है। मेरे उस दोस्त को भी हैप्पी दीवाली जो अपनी प्रेग्नेंट पत्नी के दीवाली पर पड़ रहे बर्थडे को भूलकर अपने उस सहयोगी की जगह पॉवर हाउस में रात्रि कालीन ड्यूटी कर रहा है जो अपनी शादी के बाद पहली दीवाली मनाने अपने गाँव गया है।

Saturday, October 25, 2008

मेरा प्यारा दोस्त

ये बात उस समय की है जब मै मांटेसरी स्कूल में पढ़ता था। उस वक्त हम लोग छोटे छोटे थे पर पढ़ने में कॉम्पिटिशन समझने लगे थे, पर सभी लोग तो फर्स्ट नही आ सकते थे इस लिए class teacher ने हर महीने के लिए किसी एक को फर्स्ट घोषित करने का तरीका खोज लिया। उन्होंने ये नही समझा कि इसका प्रभाव किसी के बालमन पर क्या पड़ेगा जब फर्स्ट न आने पर उसे घर में पिटाई पड़ेगी। मेरा सबसे प्यारा दोस्त संजीव घर में जमकर पिटा, वह भी तब जब हम लोग सुबह स्कूल जाने के लिए उसे लेने घर पहुंचे। बस फ़िर क्या था दोस्ती कुछ दिनों के लिए टूट गई और हम लोग अकेले अकेले स्कूल जाने लगे।

Wednesday, October 22, 2008

TRUTH OF FRIENDSHIP


हर व्यक्ति के जीवन में कुछ ऐसे मित्र होते है जिनके कारण उसे दुश्मनों की जरूरत नही होती. ऐसे दोस्तों को हमेशा सहेज कर रखना चाहिए क्योंकि ये लोग जिंदगी में हौसला पैदा करते है, और जीने की राह दिखाते है. इन दोस्तों से सीखना चाहिए की वे अपने अमूल्य समय का उपयोग किस तरह दूसरों को बर्बाद करने के प्रयास में करते है और जब सफलता नही मिलाती तो उसके शरणागत होकर मित्रता की दुहाई देते है. भगवन ऐसे दोस्त किसी को न दे.