Thursday, November 27, 2008

शर्मनाक हरकत

देश की व्यावसायिक राजधानी पर आतंकियों का हमला शर्मनाक है और यह समझ से परे है कि वो करना क्या चाहते हैं? उनका उद्देश्य क्या है? अगर वे अल्लाह के नाम पर ये सब करना जायज मानते हैं तो भी उनको यह तो बताना ही चाहिए कि आख़िर वे सब क्यों करना चाहते हैं और कब तक करते रहेंगे? ये तो गनीमत है कि भारत में राजनीतक कारणों से यह सब चलने दिया जा रहा है पर आज नहीं तो कल सरकार भी ऐसी शर्मनाक घटनाओं से त्रस्त हो जायेगी और वोट कीराजनीति के आगे उसे ये घटनाएँ असहनीय नजर आएँगी तब उसी दिन से शुरू हो जाएगा आतंकियों के सफाए का ऐसा क्रम जो उन्हें नेस्तनाबूद करने के बाद ही थमेगा।

Friday, November 14, 2008

पहला पाठ

दिन तो मुझे याद नहीं पर ये वाकया है संभवतः जुलाई 1990 का, मैं और मेरा एक दोस्त पत्रकारिता में प्रवेश लेने के लिए यूनिवर्सिटी पहुंचे। कुछ कारणों से यूनिवर्सिटी में हमें सभी जानते थे इस कारण जोर से पूछा- 'यहाँ कौन है,' चपरासी जो हम लोगों को जानता था तत्काल बाहर आया और पूरा सम्मान देते हुए उसने काम पूछा। हम लोगों ने उससे कहा कि प्रवेश चाहिए, इससे पहले कि वह कुछ कहता अंदर से किसी महिला कि आवाज आई- 'कौन है?' जवाब चपरासी ने दिया- 'भैया लोग हैं, प्रवेश लेना चाहते हैं।' अंदर से पुनः आवाज आई- 'पहले हमारे पास भेजो।' न चाहते हुए भी अंदर गए वहां विभागाध्यक्ष बैठी हुईं थीं, उन्होंने हम दोनों का पूरा इंटरव्यू लिया और फ़िर कहा- 'पहले प्रवेश परीक्षा दो, फ़िर प्रवेश मिलेगा वह भी तब जब मेरिट लिस्ट में नाम आएगा।' हम दोनों ने प्रवेश परीक्षा दी और सेलेक्ट भी हो गए। खुशी हुई कि कड़ी प्रतिस्पर्धा में चुना गया। वैसे विभाग के बारे में यह विख्यात था कि यहाँ प्रवेश उसी को मिलता है जिसे मैडम चाहती हैं। अब प्रश्न यह उठता है कि मैडम ने हम दोनों को प्रवेश दिया क्यों? सत्र के बीच में एक दिन खुलासा हुआ, मैडम ने क्लास में सभी को बताया कि मनीष जब प्रवेश के लिए आया था तो हाफ पैंट पहना था। उसके पैर में चोट लगी थी और उसे बारिश में भीगने से बचाने के लिये उसने पोलीथिन लपेट रखी थी, वो प्रवेश परीक्षा के बाद भी जब जब लिस्ट देखने आया तो वैसी ही स्थिति में आया, उसकी लगन देखकर मैंने तय कर लिया था उसे तो प्रवेश देना ही है। जब मेरिट लिस्ट बन रही थी तो पाया कि मनीष के नम्बर तो अच्छे हैं लेकिन उसके दोस्त के नम्बर कम थे पर दोनों का साथ देखकर दोनों को ही प्रवेश दे दिया। मैं जिंदगी मे इस पहले पाठ को कभी नहीं भूल पाउँगा कि किसी भी काम के लिये पहली शर्त लगन का होना है.



Wednesday, November 12, 2008

नई राह, नई चाह

युवा मन में तरक्की की चाह होना स्वाभाविक है और होना भी चाहिए, लेकिन इसके साथ मौकापरस्त होने का टैग नहीं लगना चाहिए। अगर यह टैग लग जाए तो कैरियर को ख़त्म होने में कुछ ही साल लगते हैं। किसी भी व्यक्ति के लिए नई राह खोजने के लिए चाह हमेशा बनी रहनी चाहिए। यही चाह उसे शीर्ष पर पहुँचने में मदद करती है बशर्ते ईमानदारी का गुण कायम रहे, हालाँकि यह काम काफी कठिन होता है और दोस्त तथा परिजन कभी-कभी gussa हो jate हैं पर यह narajagi कुछ समय की होती है, इसका सम्मान करते हुए काम में आगे badate जाना चाहिए.

Friday, November 7, 2008

दिल्ली वालों को भी फिक्र है

जबलपुर में चुनाव कौन लड़ रहा है और किसकी क्या स्थिति है, इसकी फिक्र दिल्ली तक है। तरुण भानोत के लिए तो दिल्ली से दो दोस्तों के फोन इस ब्लॉग को पढ़ने के बाद आए। आशा है कि दोस्तों के कमेन्ट भी आएंगे।

Wednesday, November 5, 2008

बस अड्डे की खुशी

जबलपुर के बस अड्डे पर जुटने वाले पत्रकारों की खुशी समाये नहीं समां रही है क्योंकि उनके पांच दोस्तों को विधानसभा चुनाव का टिकट मिल गया है। सबसे खुश हैं छोटू भाई क्योंकि वे पहले से पॉलिटिकल आदमी हैं और चाहे लखन भाई हो या शरद भाई, दोनों उनके पॉलिटिकल साथी है। कदीर भाईजान भी उनके पुराने साथी हैं और रही संजू भाई की बात तो चूँकि वह आशीष भाई के कजिन हैं इस कारण सभी का हौसला और बुलंद है। हाँ, यह बात सभी को खल रही की एक ही सीट - मध्य से दो दोस्त - कदीर और शरद आमने सामने हैं, लेकिन यह तो चुनाव है दोनों में से जो भी जीतेगा वो होगा तो बस स्टैंड का दोस्त। अब तरुण को भी टिकट मिल गया है और नामांकन रैली से ही जोश दिखने लगा है, सभी को दोस्तों की जीत का इन्तजार है.

Saturday, November 1, 2008

ये वो विवेक तो नहीं

कहते हैं कि जो व्यक्ति पुराने मित्रों को भूल जाता है उसकी सुकीर्ति स्थाई नहीं रहती, भगवान ऐसा मेरे दोस्त विवेक के साथ नहीं होने देना। आज वह फ़िल्म इंडस्ट्री में नाम कमा रहा है, व्यस्तता में पुराने दोस्तों को याद नहीं कर पा रहा है, हो सकता है उसके आसपास जो लोग हैं वो उसे पुराने दोस्तों से दूर रख रहे हों, आज नहीं तो कल वो हम लोगों को याद जरूर करेगा, तब तक दिल को मनाने के लिए यह कहना बेहतर होगा- ये वो विवेक तो नहीं है.