Tuesday, December 9, 2008

ओशो की गोद में


यह बात या तो 1969 की होगी या फ़िर 1973 की, क्योंकि ओशो इन्हीं दो वर्षों में जब जबलपुर आए होंगे तब मैं इतना छोटा रहा हूँगा की मुझे इस अदभुत घटना कि याद नहीं है। मेरे पापा और मम्मी ओशो के प्रवचन सुनने पोलिटेक्निक कॉलेज पहुंचे, तब ओशो भगवान रजनीश के नाम से पहचाने जाते थे। दोनों ये बताते हैं कि प्रवचनों के दौरान मैं खेल रहा था। मेरी आवाज से कुछ डिस्टर्ब हो रहा था तो हर कोई मेरी और देखने लग गया। भगवान रजनीश, जो कि सामने बैठकर प्रवचन दे रहे थे, भी मेरी हरकतों को देख रहे थे। इससे पहले कि आयोजक कुछ कह पाते ओशो ने अचानक से मुझे अपनी और खींचा और गोद में बिठा लिया। कुछ क्षणों के लिए दुलारा और फ़िर नीचे छोड़ दिया। मम्मी और पापा का कहना है कि उसके बाद प्रवचन काफी देर तक चलते रहे पर मैं फ़िर शांत ही बैठा रहा। इसके बाद भी जब कभी मुझे ऐसे किसी कार्यक्रम में ले जाया गया तो मैंने कभी परेशान नहीं किया।

Monday, December 8, 2008

कोई जीता कोई हारा

आख़िर चुनाव के परिणाम आ ही गए। कोई जीत गया तो कोई हार गया। चुनाव में ऐसा होता ही है। लेकिन जबलपुर के परिणामों में कुछ विशेषता है। यहाँ जो भी हुआ प्रदेश से हटकर हुआ, भाजपा ने 7 तो कांग्रेस ने मात्र 1 सीट जीती।

बस अड्डे पर मिला-जुला माहौल

रात को बस अड्डे पर मिलने वाले पत्रकार आज दिन में ही मिल लिए। कुछ खुशी थी तो कुछ गम भी था। बस अड्डे के साथियों में लखन भाई और शरद जी जीत गए, संजू भाई भी जीते और इनकी जीत की खुशी तो सभी को थी पर तरुण की हार का गम भी था। अब शरद और कदीर में तो एक को ही जीतना था, इस कारण शरदजी की जीत को सभी ने सहर्ष स्वीकार कर लिया पर तरुण की हार से सभी दुखी हैं.

Thursday, December 4, 2008

दोस्तों, सतर्क हो जाओ

मेरा यह ब्लॉग दोस्तों को समर्पित है, इसी उद्देश्य से इसकी रचना की गई थी, यह बात और है कि इस पर दोस्तों के उतने कमेन्ट नहीं मिले जितने कि अपेक्षा की गई थी। फिर भी जो दोस्त इसे पढ़ते हैं उनसे आग्रह है कि अपने कमेन्ट भी दिया करें।
मेरे कई दोस्त ऐसे हैं जिनका शौक खतरों से खेलना है। कुछ ऐसे है जो न चाहते हुए भी खतरों से खेल रहें है क्योंकि उनकी मजबूरी है। दोनों ही तरह के दोस्तों से मेरा आग्रह है कि सतर्क हो जायें क्योंकि आजकल खतरा कुछ ज्यादा बढ़ गया है। एक ओर आतंकियों कि नजर इस देश को लग गई है तो दूसरी ओर गद्दार सक्रिय है। इन सबके साथ उस क्वालिटी के दोस्त भी सक्रिय है जिनके रहते दुश्मनों की जरुरत नहीं पड़ती, फ़िर ठण्ड तो है ही।


Tuesday, December 2, 2008

आक्रोश से डर क्यों रहे

सच को स्वीकारना हर किसी के बस की बात नहीं है खासकर उन नेताओं की, जो झूठ बोलकर वोट लेने के आदी हो चुकें हैं। मुंबई हादसे के बाद जब जनता ने सड़कों पर अपना आक्रोश दिखाया तो यही नेता आज भूमिगत होने की कगार पर पहुँच गये। दरअसल ये नेता सच को स्वीकारना नहीं चाहते हैं। वे ये मानना नहीं चाहते कि देश की आज जो स्थिति है, उसके लिए वे स्वयं जिम्मेदार है। आतंकियों को जो करना था वे कर के चले गए, भविष्य में भी यदि वो चाहेंगे तो कोई नया गुल खिला जायेंगे। इसका सीधा अर्थ यह है कि जब तक तुष्टिकरण कि नीति चलती रहेगी, आतंकवाद पर काबू पाना सम्भव नहीं रहेगा। इस बार के हादसे में यह बात जरूर उल्लेखनीय रही है कि आतंकियों ने अपने किसी साथी को छुड़ाने कि मांग नहीं रखी अन्यथा इन्हीं नेताओं कि हालत देखते बनती! इनका कोई सगा सम्बन्धी यदि बंधक बना लिया गया होता तो ये उसे छुड़ाने के लिए हर सम्भव प्रयास करते चाहे उसके लिए किसी दुर्दांत आतंकी को छोड़ना ही क्यों न पड़ जाता। नेताओं को सच स्वीकार कर लेना चाहिए कि उनकी दोगली नीतिओं ने देश का बंटाधार कर दिया है। साथ ही पश्चाताप करते हुए ये वादा करना चाहिए कि वोटों की खातिर देश की सुरक्षा से समझौता नहीं करेंगे।